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कविता

वह भी एक दौर था

प्रांजल धर


गाँव में जब लकड़सुँघवा आता था
तो हम सब सोच लेते थे मन ही मन
कि गिलंट के भारी लोटे को अँगौछे में बाँधकर
बहुत जोर से घुमाएँगे,
और ऐसा मारेंगे उसे
कि वह मर ही जाएगा चीखते-चीखते
घायल होकर।
 
हालाँकि ऐसा कभी हुआ नहीं।
 
लहसुन और धनिया के गझिन गाछ
की कल्पित छाया में
गहरा आराम करते थे हम
नन्हीं क्यारियों में।
 
भोंपुओं से पहचाने जाने वाले फेरीवालों से
हम गेहूँ और धान के बदले
खरीदते थे हिनोना,
यह तो बहुत बाद में जाना
कि ऋग्वेद में भी
वस्तु-विनिमय की तमाम जानकारियाँ भरी हैं।
हिनोना इतना प्रिय
कि एक ग्राम भी कम नहीं लेना चाहता था कोई
नापतौल पर शक हो जब
हम गाँव में किसी के घर से
दौड़कर तराजू और बटखरा माँग लाते थे।
 
वह भी एक दौर था जब
हम बच्चों के पास अपने-अपने
मामाओं के घरों के स्वप्निल इतिहास हुआ करते थे,
जहाँ हम छुट्टियाँ बिताने जाते थे गर्मियों की लंबी-लंबी।
 

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